विनम्रता और बुद्धिमत्ता की राजकुमारी
एक प्रेरणादायक कहानी
दीयों का प्रकाश और एक नन्ही सी इच्छा
बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से गाँव में प्रिया नाम की एक प्यारी बच्ची रहती थी। उसके बाल घने और काले थे, और उसकी आँखें हमेशा चमकती रहती थीं, जैसे उनमें हज़ारों कहानियाँ छिपी हों। प्रिया किसी राजकुमारी जैसी नहीं दिखती थी; वह रोज़ अपनी माँ के साथ खेत में मदद करती, पड़ोसियों के लिए पानी भरती और गायों को चारा डालती थी। वह हमेशा एक सूती साड़ी या सादा सलवार-कमीज़ पहनती थी, और उसके पैरों में कोई सोने की पायल नहीं थी, बस मिट्टी की धूल।
गाँव में दिवाली का त्योहार आने वाला था। हर घर में साफ़-सफाई हो रही थी, रंगोली बनाई जा रही थी और मिठाइयों की ख़ुशबू हवा में घुल रही थी। प्रिया को भी दिवाली बहुत पसंद थी। उसे मिट्टी के दीये रंगना, घर को फूलों से सजाना और अपनी माँ के हाथ की बनी स्वादिष्ट गुझिया खाना अच्छा लगता था। इस बार गाँव में एक ख़ास बात होने वाली थी। राजा उदयवीर, जिनका राज्य बहुत बड़ा था, वे अपनी रानी के साथ गाँव में आने वाले थे। कहा जाता था कि राजा बहुत नेक दिल थे, लेकिन उनके कोई बच्चे नहीं थे, और वे अक्सर अपने राज्य के सबसे बुद्धिमान और दयालु व्यक्ति को खोजते रहते थे, जो उनके बाद प्रजा की देखभाल कर सके।
दिवाली की शाम, पूरा गाँव दीयों की रोशनी से जगमगा उठा था। हर तरफ "जय श्री राम" के जयकारे गूँज रहे थे, क्योंकि यह अयोध्या के राजा राम के लौटने का दिन था। राजा उदयवीर और रानी माधवी गाँव के मंदिर में पूजा के लिए आए थे। गाँव के सभी बच्चे उत्सुकता से उन्हें देखने के लिए जमा हो गए थे। राजा ने देखा कि गाँव में एक जगह पर कुछ बच्चे झगड़ रहे थे। एक छोटा लड़का रो रहा था क्योंकि कुछ बड़े बच्चों ने उसका दिया बुझा दिया था। वह अकेला, डरा हुआ खड़ा था। बाकी बच्चे उसे चिढ़ा रहे थे।
प्रिया ने यह सब देखा। बिना कुछ सोचे, वह उस रोते हुए बच्चे के पास गई। उसने अपना दीया, जो उसने बड़े प्यार से सजाया था, उसके हाथ में दिया और कहा, "लो, यह तुम्हारा है। मेरे पास और भी हैं।" फिर उसने अपने घर से एक और नया दीया लाकर जलाया। बड़े बच्चों में से एक ने प्रिया से पूछा, "तुमने अपना सबसे सुंदर दीया उसे क्यों दे दिया? अब तुम्हारे पास कौन सा बचा?" प्रिया मुस्कुराई और बोली, "दीये तो ख़ुशियाँ फैलाने के लिए होते हैं। अगर मेरा दिया किसी और के चेहरे पर मुस्कान ला सके, तो इससे ज़्यादा ख़ुशी क्या होगी? वैसे भी, रोशनी बांटने से कम नहीं होती, बल्कि बढ़ती है।"
राजा उदयवीर और रानी माधवी यह सब देख रहे थे। उन्हें प्रिया की विनम्रता और समझदारी बहुत पसंद आई। पूजा ख़त्म होने के बाद, राजा ने प्रिया को अपने पास बुलाया। "बेटी, तुम्हारा नाम क्या है?" राजा ने पूछा। प्रिया ने अपने छोटे हाथ जोड़कर नम्रता से कहा, "मेरा नाम प्रिया है, महाराज।" "तुमने अभी जो किया, वह बहुत ख़ूबसूरत था। क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुमने अपना दिया देकर नुक़सान किया?" राजा ने जानना चाहा। प्रिया ने बड़े धैर्य से जवाब दिया, "महाराज, मेरे पिताजी कहते हैं कि जो दूसरों को देता है, भगवान उसे कई गुना लौटाते हैं। और सच्चा धन दौलत नहीं, बल्कि प्रेम और सद्भाव होता है।"
राजा और रानी एक-दूसरे को देखने लगे। उन्होंने कई लोगों से बात की थी, कई विद्वानों से मिले थे, लेकिन इतनी कम उम्र में इतनी गहरी समझ और निस्वार्थता उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। राजा उदयवीर ने मुस्कुराते हुए कहा, "प्रिया, तुम सिर्फ़ नाम से ही नहीं, दिल से भी 'प्रिया' हो। जो लड़की इतनी विनम्रता और बुद्धिमत्ता से काम करती है, वह किसी भी राज्य को चला सकती है। मैं तुम्हें अपनी बेटी बनाना चाहता हूँ, तुम्हें राजकुमारी बनाना चाहता हूँ। क्या तुम यह ज़िम्मेदारी सम्भालोगी?"
पूरा गाँव अचरज से प्रिया को देख रहा था। प्रिया की आँखें नम हो गईं। उसने अपने माता-पिता की तरफ देखा, जिन्होंने गर्व से सिर हिलाया। उसने फिर से हाथ जोड़े और बोली, "महाराज, यह मेरा सौभाग्य होगा। मैं वचन देती हूँ कि मैं अपनी पूरी विनम्रता और बुद्धिमत्ता से प्रजा की सेवा करूँगी।"
और इस तरह, एक छोटी सी गाँव की लड़की, प्रिया, अपनी विनम्रता और समझदारी से एक महान राजकुमारी बनी। उसने कभी यह नहीं सोचा था कि एक छोटा सा दिया और कुछ दया भरे शब्द उसके जीवन को इस तरह बदल देंगे। वह हमेशा याद रखती थी कि सच्ची दौलत गहने या महल नहीं, बल्कि एक साफ़ दिल और दूसरों के लिए प्यार होता है। और उसी दिन से, राजकुमारी प्रिया अपने राज्य में सबके लिए प्रेम और सद्भाव का एक नया प्रकाश बन गई।


नवमी पूजा के पहले दिन का उत्सव नवरात्रि में बेहद महत्वपूर्ण है। आमतौर पर नवमी तिथि पर मां दुर्गा के नवें स्वरूप मां सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है, जिसमें श्रद्धालु व्रत रखते हैं, विशेष पूजा विधि अपनाते हैं और कन्या पूजन एवं भोग का आयोजन करते हैं।
नवमी पूजा की विधि (दिन 1) हिंदी में
ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
पूजा स्थल को साफ करें, चौकी पर मां देवी की तस्वीर या मूर्ति स्थापित करें।
सबसे पहले, मां को गंगाजल या स्वच्छ जल से अभिषेक करें।
मां को लाल फूल, अक्षत (चावल), सिंदूर, धूप, दीप, फल, नैवेद्य (भोग) आदि अर्पित करें।
मां सिद्धिदात्री को खासतौर पर हलवा, पूड़ी, चना, नारियल, और खीर का भोग लगाया जाता है।
देवी मंत्र, दुर्गा सप्तशती, दुर्गा चालीसा या साधना का पाठ करें।
पूजा के बाद परिवार के सभी लोगों को तिलक लगाएं और प्रसाद बांटें।
अंत में कन्या पूजन करें—कन्याओं के पैर धोकर उन्हें भोजन कराएं, तिलक लगाकर उपहार दें और आशीर्वाद लें।
नवमी पूजा का महत्व
इस दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा से सिद्धि और शक्ति की प्राप्ति होती है।
कन्या पूजन को मां दुर्गा की कृपा प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय माना गया है।
व्रत और पूजा से सुख, समृद्धि, रोग-शांति और घर में सकारात्मकता आती है।
“नवमी पूजन एवं कन्या पूजन के माध्यम से नवदुर्गा के अंतिम स्वरूप का आशीर्वाद प्राप्त करने की परंपरा है, जिससे साधक को जीवन में सभी बाधाओं से मुक्ति और सर्वसिद्धि प्राप्त होती है।”
अध्याय 1: भाग्य का दीया
प्राचीन भारत के एक छोटे से गाँव, जिसे शांतिपुर कहते थे, की मिट्टी में पली-बढ़ी थी एक नन्ही सी लड़की, लीला। उसके बाल खुले आकाश से भी ज़्यादा गहरे और आँखें सुबह के सूरज जितनी उज्ज्वल थीं। उम्र भले ही दस बरस की थी, पर उसके हृदय में नदी की भाँति निर्मल करुणा बहती थी। लीला, अपनी माँ यशोदा के साथ एक छोटी सी झोपड़ी में रहती थी, जहाँ सुख-सुविधाओं की कमी थी, पर प्रेम की कोई कमी न थी। उनके घर में रोज़ सुबह भगवान सूर्य को प्रणाम करने के बाद, यशोदा माँ चूल्हे पर दाल-रोटी बनातीं और लीला पास बैठकर कहानियाँ सुनती।
गाँव में दिवाली का पावन पर्व नज़दीक था। हर घर में साफ़-सफ़ाई चल रही थी, और बच्चे मिट्टी के दीये बनाने में जुटे थे। लीला भी अपनी माँ के साथ, सूखे पत्तों और गोबर के उपलों से बने चूल्हे पर मिट्टी के दीयों को पकाती। उसके छोटे हाथों पर मिट्टी और धूल के निशान थे, पर उसके चेहरे पर संतोष की मुस्कान थी। "माँ," उसने एक शाम पूछा, "हमारे पास ज़्यादा दीये क्यों नहीं हैं? सब घरों में तो जगमग होगा।" यशोदा माँ ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा, "मेरी बिटिया, दीयों की संख्या से ज़्यादा उनका प्रकाश मायने रखता है। एक छोटा सा दीया भी पूरे घर को रोशन कर सकता है, जैसे तुम्हारा निर्मल हृदय हमारे जीवन को।" लीला ने अपनी माँ को देखा, जिनकी आँखों में अनकही कहानियाँ छिपी थीं।
दिवाली की शाम आ पहुँची। गाँव भर में लक्ष्मी पूजन की तैयारियाँ चल रही थीं। यशोदा माँ ने लीला को एक पुरानी सूती साड़ी पहनाई, जिसमें उनकी अपनी जवानी के दिनों की महक थी। उन्होंने घर के आँगन में छोटी सी रंगोली बनाई और तुलसी के पौधे के पास दो दीये जलाए। लीला ने देवी लक्ष्मी के सामने हाथ जोड़े और मन ही मन अपनी माँ के लिए सुख माँगा। उसी पल, गाँव की धूल भरी सड़क पर दूर से घोड़ों के टापों की आवाज़ सुनाई दी। यह अयोध्या के राजा विक्रम और रानी करुणा का शाही काफिला था, जो पड़ोसी राज्य से लौट रहा था। अचानक, उनके रथ का एक पहिया कीचड़ में धँस गया। राजा ने गाँव के मुखिया से मदद माँगी और रातभर वहीं रुकने का फ़ैसला किया।
गाँव के बच्चे शाही रथों और सैनिकों को देखने उमड़ पड़े। लीला भी उत्सुकता से उन्हें देख रही थी। रानी करुणा, जिनकी गोद सूनी थी, अपनी खिड़की से गाँव की सादगी को निहार रही थीं। उनकी नज़र एक छोटी सी लड़की पर पड़ी, जो अपने घर के बाहर जलते दो दीयों की रोशनी में मुस्कुरा रही थी। उस लड़की के माथे पर एक छोटा सा तिल था, जो रानी को बरसों पहले खोई हुई अपनी बेटी की याद दिला गया। उनका दिल तेज़ी से धड़क उठा। उन्होंने अपने एक सेवक को उस लड़की के घर का पता लगाने का आदेश दिया।
रात गहरी थी जब रानी करुणा अपने कुछ अंगरक्षकों के साथ यशोदा की झोपड़ी में पहुँचीं। यशोदा और लीला डर गईं, लेकिन रानी के चेहरे पर ममता की एक झलक थी। "क्षमा करें देवी," यशोदा ने हाथ जोड़कर कहा, "हमारी कुटिया में आपका क्या काम?" रानी करुणा ने लीला को ध्यान से देखा और फिर यशोदा से पूछा, "यह सुंदर बालिका कौन है?" यशोदा ने बताया कि लीला उसकी गोद ली हुई बेटी है, जो उसे दस बरस पहले एक नदी किनारे मिली थी, एक टूटी हुई पालकी और एक छोटे से चंदन के संदूक के साथ।
यह सुनकर रानी करुणा की आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने संदूक के बारे में पूछा। यशोदा ने भीतर जाकर एक पुराना, धुँधला सा चंदन का संदूक निकाला। रानी ने उसे खोलते ही अंदर रखी एक छोटी सी रेशमी चुनरी और एक स्वर्ण पदक देखा, जिस पर अयोध्या राजघराने का प्रतीक अंकित था – एक उगता हुआ सूरज। यह वही पदक था जो उन्होंने अपनी नवजात बेटी को पहनाया था, जब बाढ़ में वह उनसे बिछड़ गई थी।
रानी का दिल खुशी और दुख से भर उठा। उन्होंने लीला को गले लगा लिया। "मेरी बेटी," वह फुसफुसाईं, "मेरी बिछड़ी हुई बेटी!" यशोदा और लीला दोनों ही भौंचक्की रह गईं। रानी करुणा ने अपनी पूरी कहानी सुनाई, कैसे दस साल पहले एक भयानक बाढ़ ने उनके राज्य में तबाही मचाई थी और उनकी नवजात बेटी, जिसे वे सरयू नदी के पास एक पालकी में छोड़कर भागने को मजबूर हुई थीं, पानी के तेज़ बहाव में बह गई थी। यह सुनकर यशोदा की आँखों से भी आँसू बहने लगे। वह जानती थी कि लीला का भाग्य उसे एक दिन बड़े संसार में ले जाएगा, पर आज यह सब सच हो गया था।
अगले दिन सुबह, सारा गाँव आश्चर्यचकित था। लीला, जो कल तक एक साधारण ग्रामीण बालिका थी, आज अयोध्या की राजकुमारी बन चुकी थी। उसे शाही वस्त्र पहनाए गए, उसके बालों में मोतियों की लड़ियाँ गूंथी गईं। महल से विशेष रथ और सैनिक यशोदा और लीला को लेने आए। यशोदा ने अपनी लीला को विदा करते हुए कहा, "बेटी, राजसी वैभव में कभी अपने संस्कारों को मत भूलना। विनम्रता और दया ही असली आभूषण हैं।" लीला ने अपनी माँ को गले लगाया और उनकी आँखों में आँसू थे – खुशी के भी और बिछड़ने के गम के भी। उसने वादा किया कि वह कभी अपनी जड़ों को नहीं भूलेगी। शाही रथ धीरे-धीरे महल की ओर बढ़ चला, और लीला ने अपने पीछे छूटते गाँव और जलते हुए दीयों को देखा, जो उसके जीवन की एक नई सुबह का संकेत दे रहे थे।